श्रद्धेय श्री नारायण सिंह जी रेडा़

श्रद्धेय नारायण सिंह जी  का जीवन एक ऐसी यात्रा की कहानी है जो साधारणताओं से प्रारम्भ होकर असाधारणताओं तक पहुंचने की यात्रा है। 30 जुलाई,1940 मंगलवार को अत्यन्त साधारणताओं के बीच उनका जन्म हुआ। एक अत्यन्त साधारण परिवार, गांव में रहने वाला निम्न मध्यम वर्ग का राजपूत परिवार। पिता हरी सिंह जी गांव के एक साधारण राजपूत। चूरू जिले की सुजानगढ तहसील का एक साधारण सा मरूस्थलीय गाँव रेड़ा उनका जन्म स्थान था।

बीकानेर उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। उन्होंने दसवीं तक शिक्षा बीकानेर में ही प्राप्त की। पढ़ने में भी होशियार थे और विद्यालय की एनसीसी, स्काउटिंग आदि गतिविधियों में भी अग्रणी रहते थे। सन् 1950 में मात्र 10 वर्ष की उम्र में बीकानेर में लगे एक प्राथमिक प्रशिक्षण शिविर से उनकी संघ यात्रा प्रारम्भ हुई। वह संघ की शिविर शृंखला का 23वां था और वे 882वें व्यक्ति थे जो संघ के शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करने आए थे। अपनी पाठशाला के अतिरिक्त वे छात्रावास में रहते थे और कुछ न कुछ चिन्तन मनन चलता रहता था। वे नित्य डायरी लिखा करते थे और उनकी डायरी में स्वयं अपने ही ऊपर टिप्पणियां हुआ करती थी। यह प्रक्रिया है स्वाध्याय की, स्वाध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन। आत्म निरीक्षण। और इसी आत्म निरीक्षण ने ही उन्हें साधारणताओं से असाधारणताओं में पहुंचा दिया।

घर की परिस्थितियों के कारण दसवीं कक्षा के बाद वे अध्यापक बन राजकीय सेवा में चले गए। उनको बाहर के एक छोटे गांव में लगाया गया, जहां संघ का कार्य करने के लिए कोई कार्यक्षेत्र नहीं था, अतः वे व्यथित रहा करते थे। बीच-2 में छुट्टी का अवसर देखकर अपनी उस व्यथा को मिटाने को बीकानेर आ जाते थे। इसी व्यथा और संघ के प्रति छटपटाहट ने ही उन्हें साधारणताओं से असाधारणताओं में धकेलने का कार्य किया।

सन् 1959 के मई माह में संघ का उच्च प्रशिक्षण शिविर हल्दीघाटी में लगा। उसी शिविर में उन्होंने यह निर्णय ले लिया कि पू. तनसिंह जी के सानिध्य में रहकर अब जीवन भर संघ का कार्य करना है। घर के सबसे बड़े लड़के और शादीशुदा। विपरीत घरेलु परिस्थितियां होते हुए भी लगी नौकरी छोड़कर ऐसा निर्णय लेना सभी को आश्चर्य में डाल सकता है। लेकिन तनसिह जी के साथ रहने में ही मेरा कल्याण है, यह निर्णय, यह पकड़ बहुत ही समझदारी की पकड़ थी तथा 19 वर्ष के युवक का यह अत्यन्त साहसिक कदम था। साधारणतया कोई ऐसा निर्णय ले नहीं पाता है। हम में से भी कई लोगों के इस प्रकार के भाव उमड़ते हैं लेकिन जीवन की कठिन पगडण्डियों पर वह भाव धुमिल होने लगता है। हमें समर्पण के बाद भी भय है – हमारे जीवनयापन, कुटुम्ब पालन व भविष्य की समस्याओं का। हम तो चाहते हैं कि मेरी साधना भी चलती रहे और दूसरी तरफ ये सब भी सुरक्षित रहे लेकिन यह संभव नहीं है, यह तो साधारणता में ही जीना है। लेकिन नारायण सिंह जी का जीवन साधारणता से असाधारणता की ओर बढने का नाम है। 19 वर्ष के उस युवक के सामने सारा जीवन चुनौति बनकर खड़ा है। विद्याध्ययन, नौकरी, कुटुम्बपालन आदि सारी समस्याएं जो एक मध्यम वर्ग के व्यक्ति के सामने होती हैं वे सभी उनके सामने मुंह खोले खड़ी थीं। लेकिन उनका संकल्प, उनका निर्णय, उनका समर्पण इतना पक्का था कि उस दिन उस घड़ी से लेकर मृत्युपर्यन्त उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

तनसिंह जी के साथ रहना कोई आसान काम नहीं था। अपने साथ रहने वालों को वे मांजकर स्वच्छ बनाते थे, निर्मल बनाना चाहते थे। और मांजने की क्रिया सदैव कष्टकारी हुआ करती है। तनसिंह जी के समीप अनेक लोग आए और अधिकांश इन कष्टों के कारण भाग छूटते थे। नारायण सिंह जी को तो स्वयं ही निर्मल बनना था, सरल बनना था, अतः सत्य की ओर ले चलने वाले के साथ रहने में आने वाले कष्ट उन्हें विचलित कैसे कर सकते थे? अपनी इस यात्रा में वे आदर्श स्वयंसेवक बने। एक अच्छा सहयोगी, अधिकारी या शिक्षक बनने से पहले आदर्श स्वयंसेवक बनना पड़ता है। जो स्वयं आज्ञापालन नहीं कर सकता वह दूसरों से आज्ञापालन करवा ले, इसकी सम्भावना बहुत कम है। उनका आज्ञापालन, उनका सेवाभाव, उनकी निरन्तर कर्मठता, उनकी अटूट लगन, उनकी तत्परता तथा उनकी सजगता ने उनको एक आदर्श स्वयंसेवक के रूप में प्रतिष्ठापित किया। शिविरों में वे एक आदर्श घटप्रमुख के रूप में भी प्रतिष्ठापित हुए। अपने घट के लोगों को वे इस प्रकार से बांध लेते थे कि वे लोग संघ से जुड़ जाते थे।

शिक्षक के रूप में शिक्षण को रोचक बनाने के लिए अनेकों प्रयोग किए जिससे कि 18-18 घण्टे व्यस्त कार्यक्रमों में शिक्षार्थीयों को ऊब नहीं आए, थकावट नहीं आए। प्रत्येक कार्यक्रम में रोचकता बनी रहे इसके लिए कार्यक्रमों और चर्चाओं आदि के वर्गीकरण कर उन्होंने अन्य लोगों के लिए शिक्षण का कार्य सुगम बना दिया।

कर्मठता ऐसी कि 4-4 महिने लगातार एक के बाद एक शिविर और बीच के दिनों में शाखाओं के दौरों में अकेले व्यस्त रहते थे। और कभी भी न थकान की शिकायत और न ही अकेलेपन की शिकायत। आज भी एक साथ 20-20 शिविर लगते हैं लेकिन अनेक लोग हैं जो ये कार्य कर रहे हैं। वे संकल्प के धनी थे और उसी के अनुरूप स्वयं को ढाल लिया। सच्चे अर्थों में जीवन का एक भी दिन, शक्ति का एक भी अणु, द्रव्य का एक भी पैसा तथा हृदय का एक भी भाव संघ से छुपाकर न रखने वाला जीवन बना लिया था अपना।

संघ के कार्य में इतनी व्यस्तता रहती थी कि कई बार वर्ष-वर्ष भर तक घर नहीं जा पाते थे। निरन्तर संघ कार्य में लगे रहते थे। माता-पिता, पत्नी, संतान, बंधु-बांधवों आदि का कोई भी आकर्षण ऐसा नहीं था जो संघ की आवश्यकतओं के आकर्षण को कम कर सके।

सन् 1963 से 1975 तक वे संघशक्ति के सम्पादक रहे और कुशलता पूर्वक सम्पादन कार्य किया। 1969 के बोरून्दा ओटीसी में वे मात्र 29 वर्ष की उम्र में श्री क्षत्रिय युवक संघ के संघप्रमुख चुने गए। उसके बाद 1974, 1980 व 1985 में पुनः संघप्रमुख चुने गए। इस प्रकार 10 वर्ष पू. तनसिंह जी के सान्निध्य मेें और 10 वर्ष स्वतन्त्र रूप से संघ को नेतृत्व प्रदान किया। एक व्यापारी के रूप में कुशलतापूर्वक व्यापार का संचालन कर कुशल प्रशासक का चातुर्य दर्शाया। व्यापार में लेखे जोखे के कार्य को पहले कहीं नहीं सीखा लेकिन उसमें भी ऐसी निपुणता हासिल की कि लेखा विशेषज्ञ भी आश्चर्यचकित थे। साथी लोग जब हिसाब किताब में कहीं उलझ जाते थे तो दूर बैठे ही कुछ जानकारियां हासिल कर वे उन्हें सुलझा देते थे। उनको जीवन में जो भी दायित्व मिला, उसमें उन्होंने सदैव विशिष्ठता प्राप्त की।

श्री क्षत्रिय युवक संघ का मार्ग आध्यात्मिक मार्ग है। सम्पूर्ण योग मार्ग है। जो भी इसे पूर्ण समर्पण भाव से स्वीकार कर चल पड़ता है, उस ईश्वरीय तत्व को प्राप्त कर सकता है। इसी मार्ग से पाया नारायण सिंह जी ने। उन्हें स्वतः ही योगिक क्रियाएं प्राप्त होने लगी। इसके फलस्वरूप उनमें चमत्कारी परिवर्तन आरम्भ होगए। उस समय में उनके द्वारा किए गए सहगायनों के अर्थों, चर्चाओं में योग प्रगट होने लगा। उनकी साधना बड़ी कष्ट दायक थी किन्तु परिणाम अत्यन्त आनन्ददायक थे। संघ में एक नये उत्साह का संचार हुआ कि यह मार्ग हमें भी इस स्थिति तक पहुंचा सकता है, बस कमी है तो लगन की। 1980 से 1989 का समय संघ के लिए अत्यन्त महत्व का समय रहेगा। संघ व्यवहारिक रूप से पारिवारिक भावना से बंधकर एक सच्चे परिवार का रूप इसी समय ले सका। सबको एक सूत्र में बांधकर इतना मजबूत बना दिया कि वज्रपात भी उसका कुछ न बिगाड़ सके।

आज जयन्ती के अवसर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते समय जैसे नारायण सिंह जी यही कह रहे हों कि मुझे भी तुम्हारी ही तरह संघ में आने का अवसर मिला, मुझे भी संघ में भागीरथी नजर आई, मैंने सोचा इसमें डूबकी लगा लूँ। तुम्हारी ही तरह मेरे सामने भी कई विकल्प थे। एक तरफ परिवार, सांसारिक प्रलोभन से भरे अनेक विकल्प, तो दूसरी तरफ इस भागीरथी में आकण्ठ डूबकर स्वयं के अस्तित्व को समाप्त कर सच्चा मोती प्राप्त कर लेने का। मैने डूबना स्वीकार किया और उसी क्षण मेरे जीवन ने नया मोड़ ले लिया। ऐसा सब कर सकते हैं, लेकिन इस अनोखे सत्संग की कीमत है -बिना शर्त जीवन देना।