पूज्य नारायणसिंह रेड़ा – तृतीय संघ प्रमुख

पूज्य तनसिंह जी ने श्री क्षत्रिय युवक संघ के मार्ग को मानव जीवन के लक्ष्य की आरे बढाने वाला राजमार्ग बताया और पूज्य नारायणसिंह ने अपने जीवन के माध्यम से यह सिद्ध किया कि पूज्य तनसिंह जी की बात अक्षरशः सत्य है। उन्होंने संघ कार्य को संपूर्ण योग मार्ग के रुप में सर्वात्मना स्वीकार किया एवं स्वयं के जीवन में योगयुक्त स्थितियों को उद्घाटित कर उसे अपने साथियों के समक्ष पुष्ट किया। पूज्य तनसिंह जी के योग्यतम अनुयायी पूज्य नारायणसिंह जी ने 1969 से 1979 तक पूज्य श्री के संरक्षण में एवं 1979 से 1989 तक पूज्य श्री के पार्थिव संरक्षण के बिना संघ प्रमुख के रुप में संघ का संचालन किया। आपका जन्म 30 जुलाई 1940 तद्नुसार श्रावण कृष्णा एकादशी संवत् 1997 को राजस्थान के चुरु जिले की सुजानगढ तहसील के सुदूर गांव रेड़ा में हुआ। अत्यंत साधारण राजपूत परिवार में जन्में पूज्य नारायणसिंह जी के पिता का नाम श्री हरिसिंह जी व माताजी का नाम श्रीमती सुगन कंवर भटियाणी था। आप परिवार में पांच भाईयों में सबसे बड़े थे। बीकानेर में अध्ययनरत रहते हुए 23 सितंबर 1950 से 25 सितंबर 1950 तक बीकानेर में आयोजित एक प्राथमिक प्रशिक्षण शिविर में आप संघ के संपर्क में आये। यह संघ की शिविर श्रृंखला का 23वां शिविर था। मऊ (सीकर) में 29 सितंबर से 5 अक्टूबर 1957 तक आयोजित सात दिवसीय प्रशिक्षण शिविर के बाद आप पूर्ण समर्पित स्वयंसेवक के रुप में कर्मशील हुए। तब से लेकर जीवनभर संघ के बने रहे। दसवीं तक अध्ययन के उपरान्त पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आगे अध्ययन जारी नहीं रख पाये और अध्यापक के रुप में राजकीय सेवा में चयनित हुए। लेकिन संघ साथियों एवं संघ साधना से विछोह सहन नहीं कर पाये और अपनी व्यथा मिटाने जब भी अवसर मिलता बीकानेर शाखा में आ जाया करते थे। सन् 1959 के मई माह में संघ का ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर हल्दीघाटी में लगा। वहां पूज्य तनसिंह जी के सान्निध्य से इतना प्रभावित हुए कि जीवन भर साथ रहने का निर्णय ले लिया। विपरीत घरेलु परिस्थितियां, लगी हुई सरकारी नौकरी, परिवार में सबसे बड़े एवं विवाहित जीवन - इन के बावजूद 19 वर्ष की आयु में अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय लिया और उसी निर्णय ने उन्हें आज हम सबका पूजनीय बना दिया। फिर इस निर्णय को हर उतार चढाव में निभाया। वे संघ के आदर्श स्वयंसेवक बने और उसी के परिणाम स्वरुप संघ शिक्षण के आदर्श शिक्षक बने। संघ के शिक्षण को रोचकता प्रदान की। कर्मठता पूर्वक 4-4 महीने लगातार शिविर दर शिविर एवं बीच के अंतराल में शाखाओं के दौरे जारी रखे। कभी अकेलेपन या थकान की शिकायत नहीं की। संघ कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। यहां तक कि चारों छोटे भाईयों के विवाह में भी संघ कार्य में अन्यत्र व्यस्त होने के कारण शामिल नहीं हो पाये। फरवरी 1963 से जून 1975 तक ‘संघशक्ति‘ पत्रिका के संपादक का दायित्व निभाया। 1969 में बोरुंदा शिविर में संघ के संघप्रमुख चुने गए, 1974, 1980 व 1985 में पुनः संघप्रमुख चुने गए। आत्मनिरीक्षण (स्वाध्याय) उनका संघ के संपर्क के समय से ही प्रारंभ हो गया था। बीकानेर में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने आत्मावलोकन परक डायरी लेखन प्रारंभ किया और इसी आत्मावलोकन की प्रवृति ने उनको पूज्य तनसिंह के सान्निध्य में विकास के उच्चतर प्रतिमानों की ओर अग्रसर किया। पूज्य तनसिंह जी के प्रति उच्चकोटि के समर्पण ने उनमें पूज्य तनसिंह जी के देहावसान के पश्चात तनसिंहत्व के अवतरण का मार्ग प्रशस्त किया और उनमें योग का प्रस्फुटन हुआ। सांघिक साधना के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से होते हुए वे श्रद्वा, अभीप्सा, शरणागति, आत्मोद्घाटन आदि समर्पण की सीढियां चढते हुए योगयुक्त हुए। पूज्य तनसिंह जी के देहावसान के बाद उनका जीवन यौगिक अनुभवों से युक्त अलौकिक जीवन बन गया जिसने उपस्थिति मात्र से संघ को दृढता प्रदान की। उनकी उस तपस्या ने संघ परिवार को देव शीश पर चढने लायक माला बना दिया। इस प्रकार पूज्य तनसिंह जी द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के वे प्रथम स्नातक बन गए जिसने जीवन के अंतिम उद्देश्य सेे साक्षात्कार किया। उनका जीवन आसक्ति विहीन बन गया और 22 अक्टूबर 1989 तद्नुसार कार्तिक कृष्णा अष्टमी संवत 2046 को नचिकेता की तरह मृत्यु का साक्षात्कार कर उन्होंने अपनी लौकिक देह का त्याग किया।