पूज्य तनसिंह जी ने अपना जीवन देकर जीवन खरीदा। वे सदैव ऐसे पात्रों की खोज में रहे जो समाज में जीवन जुटा सकें, गौरव जुटा सकें और सम्मान को जन साधारण में बांट सकें। उन्होंने जीवन भर ऐसे कुटुम्ब के निर्माण के लिए उद्यम किया जिसमें पिता का वात्सल्य, मां की ममता, गुरु की कृपा, भगिनी का स्नेह, बंधु का बंधुत्व, पत्नी की परायणता, पुत्र की भक्ति और जीवन के समस्त कर्त्तव्याधिकारों की अनेक धाराएं समाई हुई हों। इसके लिए उन्होंने जीवन की भीख मांगने वाले अनोखे भिखारी का जीवन जीया। उनके इसी जीवन के अनुभवों को उन्होंने आत्मकथनात्मक रुप से लिपिबद्ध कर ‘संघशक्ति‘ पत्रिका के लिए मार्च 1961 से दिसंबर 1962 तक एक लेखमाला बनाई। उसी लेखमाला का पुस्तकीय स्वरुप है ‘भिखारी की आत्मकथा‘ जिसे 1990 में प्रकाशित किया गया। यह सामान्य आत्मकथा तो नहीं है लेकिन एक अनूठे व्यक्तित्व का अनुठा आत्मनिवेदन है।