समाज सेवा परमार्थपूर्ण कार्य है जिसमें त्याग की भावना सात्विक होती है लेकिन कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उसके सभी पहलुओं पर विचार न करने के कारण एक समाज सेवक में भी अर्जुन की भांति कायरता घुस जाती है। विभिन्न आंतरिक एवं बाह्य अवरोधों से विचलित होकर साधक सोचता है कि वह ही समाज सेवा क्यों करे? अर्जुन की जैसी ही हताशा से बचने के लिए समाज सेवक के मार्गदर्शन हेतु पूज्य तनसिंह जी ने गीता को आधार बनाकर इस पुस्तक की रचना की है। इस पुस्तक में गीता की ही भांति अठारह अध्यायों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि समष्टिगत साधना किस प्रकार गीतोक्त साधना बनकर जीवन लक्ष्य को हासिल करवा सकती है। इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन 1954 में किया गया।