अहं साधना का प्रबल शत्रु
"अहंकार का उद्गम अज्ञान से है, यद्यपि उसका दावा ज्ञान का है| अहं अनेक रूपों में प्रकट होकर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष आक्रमण द्वारा हमारी साधना को नष्ट करने का प्रयत्न करता है| अहं का सामाजिक स्वाभिमान में सम्मिलित करना ही उसका सतोगुणीये विकास है| इसके लिए उपाय है - अहं की क्षुद्रता का भाव और विचार का सम्यक ज्ञान| इन दोनों ही उपायों का व्यवहारिक अभ्यास हम यहाँ शिविर में कर रहे है| अपने अहं को सामाजिक स्वाभिमान का स्वरुप देकर ही हम अपना भी विकास करेंगे और समाज का संबल और स्वस्थ अंग भी बन सकेंगे|" उपरोक्त बातें संघ के संचालन प्रमुख श्री महावीर सिंह जी सरवड़ी ने 'साधक की समस्याएं' पुस्तक पर चर्चा के दौरान बताई| आज शिविर का चौथा दिन था, जिसमे बौद्धिक प्रवचन में श्री रेवंत सिंह पाटोदा ने प्रतीक पूजा के महत्त्व, केशरिया ध्वज की विशेषताएं और मूर्त एवं अमूर्त के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला| खेल सत्र में स्वयंसेवकों ने मैं हनुमान, चन्दन, आशीर्वाद, समूह निर्माण जैसे विभिन्न खेलों द्वारा संघर्षशीलता, अनुशाशन, सामूहिक भावना आदि गुणों को सहज भाव से अपने अंदर उतारने का अभ्यास किया|