पूज्य तनसिंह जी, संस्थापक (श्री क्षत्रिय युवक संघ)
अपना जीवन देकर सबका जीवन खरीदने वाले, अपने कर्त्तव्य को ही जीवन की सार्थकता और गहन उत्तरदायित्व समझने वाले, अपने आपको संपूर्ण रुप से अपने लक्ष्य से बांधने वाले, समाज में अनुशासन की भावना भरने के लिए स्वयं को आत्मानुशासन में बांधने वाले, कर्म को ही जीवन व अकर्मण्यता को मृत्यु मानने वाले, जीवन की ठोकरों और परीक्षा को अपना सौभाग्य मानने वाले, समाज के लिए जीवन, गौरव व सम्मान जुटाने के लिए अपने अनोखे साधना कुटुम्ब श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना करने वाले पूज्य तनसिंह जी हमारे प्रणेता हैं। इनका जन्म 25 जनवरी 1924 तद्नुसार माघ कृष्णा चतुर्थी संवत 1980 को अपने ननिहाल बैरसियाला (जैसलमेर) में हुआ। आपके पिता बाड़मेर के रामदेरिया गांव के ठाकुर बलवंत सिंह महेचा एवं ममतामयी माता श्रीमती मोतीकंवर जी सोढ़ा थीं। आपके जन्म के लगभग 4 वर्ष बाद ही कार्तिक सुदी एकम संवत 1984 को आपके पिताजी का देहावसान हो गया एवं शिशु तणेराज (बचपन का नाम) मात्र 90रु. वार्षिक आय का ठाकुर बन गया। ममतामयी माता जी ने कष्ट उठाकर शिशु का लालन पालन किया। प्रारंभिक शिक्षा के लिए बालक तनसिंह को अकेला बाड़मेर छोड़ा एवं स्वयं गांव में खेती करवाने के लिए रहीं। छठी कक्षा तक बाड़मेर पढने के बाद 1938 ई. में मात्र 14 वर्ष की आयु में माताजी ने अपने एक मात्र पुत्र को एक अनजान शहर में पढने भेजा और पूज्य तनसिंह जी ने जोधपुर स्थित चौपासनी विद्यालय में प्रवेश लिया। मैट्रिक तक की पढाई चौपासनी में की और 1942 ई. में अपने घर से लगभग 600 किमी. दूर झुंझूनूं जिले के पिलानी कस्बे में स्थित बिरला काॅलेज में अध्ययन हेतु गये। यहां से स्नात्तक की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1946 ई. में नागपुर गये और वहां से वकालात की पढाई पूर्ण की। बाड़मेर आकर वकालात प्रारंभ की एवं 1949 ई. में बाड़मेर नगर पालिका के प्रथम अध्यक्ष के रुप में निर्वाचित हुए। 1952 के आमचुनावों में मात्र 28 वर्ष की आयु में बाड़मेर से राजस्थान की प्रथम विधानसभा के लिए विधायक चुने गए। उस विधानसभा में कुछ समय के लिए संयुक्त विपक्ष के नेता भी रहे। 1957 में पुनः विधायक चुने गए। 1962 में बाड़मेर जैसलमेर जैसे संसार के सबसे बडे़ निर्वाचन क्षेत्र से मात्र 9000 रु. खर्च कर सांसद निर्वाचित हुए। 1967 का चुनाव हार गए तब स्वयं का व्यवसाय प्रारंभ किया एवं साथ ही अपने अनेक साथियों को रोजगार उपलब्ध करवाया। 1977 में पुनः सांसद चुने गए एवं 1979 की 7 दिसंबर को आपकी लौकिक देह का देहावसान हो गया। यह पूज्य तनसिंह जी का सामान्य परिचय हैै। लेकिन उनका वास्तविक परिचय किंकर्त्तव्यविमूढ क्षत्रिय समाज को उसका नैसर्गिक मार्ग प्रदान करने का कार्य है। पूज्य तनसिंह जी चौपासनी में अध्ययनरत रहते हुए ही समाज की दशा और दिशा को लेकर संवेदनशील बने एवं अपनी तरह सोचने वाले साथियों से संपर्क बढाना प्रारंभ किया। 1942 में पिलानी जाने के बाद उनके इस कार्य ने गति पकड़ी एवं 1944 की दीपावली की रात उन्होंने श्री क्षत्रिय युवक संघ नामक संगठन की नींव रखी जो उत्साही युवकों के समाज चिंतन का एक मंच था। इसमें सदस्य बनाये जाते थे, अधिवेशन होते थे एवं समाज की दशा व दिशा पर मंथन होता था। इसका प्रथम अधिवेशन (05-06 मई, 1945) जोधपुर में व द्वितीय अधिवेशन (11 व 12 मई 1946) कालीपहाड़ी (झुंझूनूं) में हुआ। किन्तु पूज्य श्री तनसिंह जी का जो उद्देश्य था उसकी पूर्ति हेतु उन्हें इस प्रकार की प्रणाली से पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई। 1946 ई. में नागपुर जाने पर भी पूज्य श्री अन्य संस्थाओं के संपर्क में रहकर अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयुक्त प्रणाली हेतु चिंतन करते रहे। इस दौरान उन्होंने नित्य, निरंतर और नियमित अभ्यास की एक कार्यप्रणाली की रूपरेखा तैयार की और जयपुर लौटकर 21 दिसंबर 1946 की रात्रि अपने उस समय के सहयोगियों से संवाद कर 22 दिसंबर 1946 को 1944 में स्थापित संघ के स्थान पर नवीन कार्य प्रणाली के साथ वर्तमान में चल रहे श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की। 25 दिसंबर से 31 दिसंबर 1946 तक जयपुर में ही प्रथम प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया। इस प्रकार पूज्य श्री ने क्षत्रिय जाति के स्वाभाविक गुणों को जागृत कर उन्हें सृष्टि का उपयोगी अंग बनाकर विश्वात्मा के दृष्टिकोण से संचालित करने का नूतन मार्ग प्रतिष्ठापित किया। पूज्य तनसिंह जी इसके प्रथम संचालक निर्वाचित हुए। 1949 में आप पुनः संघप्रमुख निर्वाचित हुए। 1954 में स्वयं निर्वाचन प्रक्रिया से अलग रहकर अपने निकटतम सहयोगी श्री आयुवान सिंह हुडील को संघप्रमुख बनवाया। 1959 में भी आपने ऐसा ही किया। आयुवान सिंह जी द्वारा पूर्ण कालिक राजनीति में जाने के लिए त्यागपत्र देने के बाद आप पुनः संघप्रमुख चुने गए एवं 1969 तक संघप्रमुख रहे। 1969 में आपने नवीन नेतृत्व को उभारते हुए अपने श्रेष्ठतम अनुयायी श्री नारायणसिंह जी रेड़ा को संघप्रमुख बनाया एवं आगामी दस वर्ष तक संघ के नये नेतृत्व को संरक्षक की भांति सींचा। आपने अपने जीवनकाल में संघ के 192 शिविर किये। 23 दिसम्बर 1978 से 1 जनवरी 1979 तक रतनगढ़ में सात दिवसीय प्रशिक्षण शिविर आपका अंतिम शिविर था। पूज्य श्री ने 1949 में चौपासनी विद्यालय के अधिग्रहण के खिलाफ आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। 1948 में ही गांधीजी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध के विरुद्व हुए आन्दोलन में भी आप शामिल हुए एवं स्वैच्छिक गिरफ्तारी दी। सरकार द्वारा दुर्भावना से प्रेरित होकर बनाये गए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के विरुद्व उस समय के संघप्रमुख आयुवानसिंह जी के निर्देश पर 1955-56 में हुए दोनों भूस्वामी आंदोलनों में आपने नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति के रुप में भाग लिया एवं जेल गए। अन्त में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरु के साथ हुई समझौता वार्ता में समाज का पक्ष रखा। पूज्य श्री ने अपने अनुगामियों के लिए अनुठा साहित्य भी रचा। आपकी 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो आज पथप्रेरक के रुप में हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। इसके अलावा आपने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सैकडों लेख लिखे। स्वयं ने प्रारंभ से ही अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित कीं। आपके द्वारा स्थापित पत्रिका ‘संघशक्ति‘ अनवरत रुप से प्रकाशित हो रही है। इसके अलावा आपने अपने अनुगामियों को हजारों पत्र लिखे, जिनमें से अनेक आज भी धरोहर के रुप में संरक्षित हैं। आपकी अप्रकाशित पुस्तक ’जीवन पुष्प’ शीघ्र ही प्रकाशित करवायी जायेगी। पूज्य श्री का वास्तविक परिचय उनका मानस पुत्र श्री क्षत्रिय युवक संघ है, जिसे अनुभूति से ही समझा जा सकता है।