स्व. आयुवानसिंह हुडील – द्वितीय संघप्रमुख
जुझारुपन एवं संघर्षप्रियता के पर्याय, अपने सहयोगियों के बीच माट्साब के नाम से प्रसिद्ध पूज्य आयुवानसिंह हुडील संघ के द्वितीय संघप्रमुख थे। आपका जन्म 17 अक्टूबर 1920 को साधारण राजपूत परिवार में नागौर जिले के शेखावाटी की सीमा पर स्थित ग्राम हुडील में हुआ। आपके पिताजी का नाम पेहप सिंह जी था एवं माताजी श्रीमती बख्तावर कंवर थीं। आप सुजान सिंह जी के गोद गये थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते 8वीं के बाद नियमित अध्ययन को जारी नहीं रख पाये एवं मेड़ता में ड्रिल मास्टर की नौकरी प्रारंभ की। उसी समय पूज्य तनसिंह जी के ‘प्रजासेवक‘ अखबार में ‘राजपूतों से द्वेष क्यों‘ नामक लेख से प्रभावित होकर 5 फरवरी 1942 को पूज्य तनसिंह को एक पत्र लिखा और उस पत्र में उनकी प्रशंसा करते हुए प्रोत्साहित किया। उस समय पूज्य तनसिंह जी चौपासनी विद्यालय में अध्ययनरत थे। पूज्य आयुवानसिंह जी का स्थानांतरण बाड़मेर हो गया और दोनों के बीच पत्र व्यवहार से निकटता बढती गई। 1944 में पूज्य तनसिंह जी द्वारा पिलानी में अध्ययनरत रहते हुए जिस श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की गई, उसकी जानकारी माट्साब को भेजी तो उन्होंने 23 अक्टूबर 1944 को पत्र लिखकर ऐेसे संगठन के साथ काम करने की अपनी व्यग्रता प्रकट की। पूज्य तनसिंह जी ने अपने उस संगठन का जोधपुर में 05-06 मई, 1945 को आयोजित प्रथम अधिवेशन उनकी अध्यक्षता में संपन्न करवाया। 22 दिसंबर 1946 को पूज्य तनसिंह जी द्वारा संघ के वर्तमान स्वरुप की स्थापना के उपरांत उसकी शिविर श्रृंखला के चौथे शिविर (4 सितंबर 1947 से 7 सितंबर 1947) बाड़मेर में पूज्य माट्साब प्रथम बार आये एवं अतिशय प्रभावित हुए। 1948 में संघ की शिविर श्रृंखला के सातवें शिविर उ. प्र. शि. कुचामन (भैंरु तालाब) के बाद वे संघ के प्रति समर्पित भाव से कर्मशील हुए। इस बीच नौकरी में रहते हुए आपने एम. ए. हिन्दी व एल. एल. बी. किया। तनसिंह जी एवं उनके साथियों के प्रबल सहयोग से माट्साब मारवाड़ राजपूत सभा के महासचिव चुने गए। माट्साब ने नौकरी छोडकर पूर्णकालिक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता के रुप में कार्य प्रारंभ किया। 1949 में दोनों सहयोगियों ने चौपासनी आंदोलन में अपनी नेतृत्व क्षमता एवं दूरदर्शिता का परिचय समाज को दिया। 1952 के प्रथम आमचुनावों में पूज्य माट्साब जोधपुर के तत्कालीन महाराजा के रणनीतिकार बनकर उभरे एवं उन्होंने आग्रह पूर्वक तनसिंह जी को बाड़मेर से चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया। 1954 को जीणमाता शिविर में पूज्य तनसिंह जी ने स्वयं पीछे हटकर पूज्य माट्साब को संघ का द्वितीय संघप्रमुख निर्वाचित करवाया, उसी समय राजस्थान सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून की आड़ में राजपूतों की आजीविका के प्रमुख साधन जमीनों को छीना गया। पूज्य माट्साब ने इस अन्याय के विरोध में संघ के किशनगढ शिविर के दौरान 1955 में आंदोलन का निर्णय लिया और उनके नेतृत्व में दो बार भूस्वामी आंदोलन हुआ। अंत में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरुजी की पहल पर समझौता हुआ और छीनी गई जमीनों के बदले मुआवजे की राशि में कई गुणा वृद्धि की गई। इस आंदोलन में उन्होंने पूरे समाज को शामिल कर एक कुशल संगठनकर्ता के रुप में कार्य किया। आंदोलन के समय अदम्य साहस, उत्साह, वीरता, धीरता एवं साधनों के अभाव के बावजूद जुझारुपन ने उन्हें एक बहादूर योद्धा के रुप में प्रतिष्ठा प्रदान की। 1959 में हल्दीघाटी शिविर में आपको पुनः संघप्रमुख चुना गया लेकिन अपनी अन्यत्र व्यस्तता के कारण आपने 22 सितंबर 1959 को त्याग पत्र दे दिया और जैसलमेर में आपकी उपस्थिति में बने नियमों के अनुरुप 6 नवंबर 1959 को पू. तनसिंह जी पुनः संघप्रमुख चुने गए। संघ कार्य से निवृत होकर पूज्य माट्साब पूर्णकालिक राजनीति में सक्रिय हुए। राजस्थान में सत्ताधारी दल के सामने प्रबल प्रतिपक्ष स्थापित करने के लिए स्वतंत्र पार्टी को राजस्थान में विकल्प के रुप में स्थापित करने का प्रयास किया। आपने स्वयं ने भी दो बार विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन सफल नहीं हो पाये। इसी समय वे कैंसर रोग से ग्रसित हो गए और 7 जनवरी 1967 को कौम के इस कुशल कारीगर का देहावसान हो गया। पूज्य माट्साब एक कुशल संगठक, राजनीतिज्ञ, रणनीतिकार आदि होने के साथ उच्च कोटि के अध्येता एवं साहित्यकार थे। उनकी लिखी ‘मेरी साधना‘ पुस्तक आज भी संघ शिक्षण का महत्वपूर्ण साधन है। उस पुस्तक के 111 अवतरण एक सामाजिक साधक की क्रमबद्ध साधना के सोपानों की मार्गदर्शिका है। उनकी ‘ममता और कर्त्तव्य‘ में लिखी कहानियां कर्त्तव्य और भावना के संघर्ष में कर्त्तव्य को स्वीकार करने वाली क्षात्र परंपरा का मर्मस्पर्शी वर्णन है। उनका सुंधामाता शिविर में ‘हमारी ऐतिहासिक भूलें‘ नामक प्रवचन पुस्तक के रुप में आज भी इतिहास को शिक्षक मानकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। राजपूतों के लिए तत्कालीन राजनीति में मार्गदर्शन के लिए लिखी पुस्तक ‘राजपूत और भविष्य‘ अभी भी राजनीतिज्ञों को आकर्षित करती है। इसके अलावा ’हठीलो राजस्थान’ व ’राजपूत और जागीरें’ भी उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। सदैव परिवार के स्थान पर समाज को प्राथमिकता देने वाले इस राजनीतिक संत ने अपने जीवनकाल में 44 शिविर किए। 15 अक्टूबर से 21 अक्टूबर 1961 तक आयोजित मेड़ता शिविर उनका अंतिम शिविर था।