पूज्य तनसिंह जी ने दिसंबर 1950 में चित्तौड़गढ़ के दर्शन किए और दुर्ग से मौन संवाद को लेखनी के माध्यम से ‘वैरागी चित्तौड़‘ के रुप में लिपिबद्ध किया। फरवरी 1958 में क्षिप्रा के तीर स्थित दुर्गाबाबा के स्मारक के दर्शन किए एवं उस स्मारक के दर्द को महसूस कर ‘क्षिप्रा के तीर‘ के रुप में लिपिबद्ध किया। मई 1959 में हल्दीघाटी देखी और महान चेतक के साथ अप्रकट संवाद को ‘चेतक की समाधि से‘ में प्रकट किया। अक्टूबर 1959 में जैसलमेर के उपेक्षित दुर्ग के साथ आत्मीय संवाद को ‘होनहार के खेल‘ शीर्षक से लिपिबद्ध किया। इतिहास के तोल-जोख से वर्तमान की परीक्षा और भविष्य की कल्पना को उन्होंने ‘कौम की कुटिया‘ के रुप में प्रकट किया। इन पांच निबंधों का संकलन ही इस पुस्तक के रुप में अस्तित्व में आया जिसे 1961 में प्रकाशित किया गया।