व्यष्टि (व्यक्ति), समष्टि (समाज या संसार) और परमेष्टि (परमेश्वर) के क्रम में साधनारत व्यक्ति के साधनागत जीवन में आने वाली मानसिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं के स्वरुप, कारण एवं निवारण का विवेचन है इस पुस्तक में। पूज्य तनसिंह जी का मानना था कि हर साधना में व्यक्ति को अपने आपको अपने से बड़ी सत्ता में निम्मज्जित करना पड़ता है। इस निम्मज्जन की प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं के बारे में उन्होंने अपने एवं अपने साथियों के अनुभवों के आधार पर समस्याओं के कार्य कारण स्वरुप एवं सर्वकालिक हल इसमे प्रस्तुत किए हैं। हर उर्ध्वमुखी (विकास की ओर उन्मुख) साधक के लिए यह पुस्तक सदैव मार्गदर्शन उपलब्ध करवाती है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1967 में प्रकाशित हुआ।