यह पुस्तक पूज्य तनसिंह जी की अनुभूतियों का निचोड़ है। उन अनुभूतियों को मात्र सौ छोटे छोटे अवतरणों में संजोकर बहुत ही बड़ी बात को सीमित शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। सांघिक साधना से किस प्रकार जीवात्मा अपने माया के पर्दे को अनावृत कर स्वयं को उद्घाटित एवं समर्पित करती है, इसका क्रमबद्ध वर्णन है यह पुस्तक। यह पुस्तक संघ की सर्वांगीण साधना का चित्रण है जो साधक के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलु को सुसंस्कृत, मार्जित और रुपांतरित करती है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1965 में प्रकाशित हुआ।