परमेश्वर अपनी प्रकृति के माध्यम से लोक शिक्षा का काम युगों से संपादित करता चला आ रहा है। उनके द्वारा रचित परिस्थितियों में लोक का भविष्य निश्चित है लेकिन मानव गुरु अपने पुरुषार्थ के सहारे कुछ कृत्रिम परिस्थितियां निर्मित कर सामाजिक शिक्षण द्वारा प्रकृति कृत विकास को शीघ्रतापूर्वक ला सकता है। इस क्रम में उसकी समस्याएं पेचीदी और बहुमुखी होती हैं। देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार उसे कहां, क्या और किस मात्रा में अपने शिक्षण के प्रयोगों को व्यवहार में लाना चाहिए यह सावधानी अपेक्षित है। सामाजिक शिक्षण की इस प्रक्रिया में शिक्षक को लोक मानस के स्वाभाविक प्रवाह को दिशा देनी होती है। पूज्य तनसिंह जी ने एक शिक्षक के रुप में यंह सब किया। उन्होंने परंपरागत शिक्षण की अपेक्षा अभिनव प्रयोग किए और लोक मानस के स्वाभाविक प्रवाह को मोड़ने में जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उन्होंने इस पुस्तक में उन समस्याओं एवं उनके सर्वकालिक हल को प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक पहली बार 1968 में प्रकाशित की गयी थी।