संस्था का प्राण है अनुशासन – संरक्षक श्री
 
                    (उच्च प्रशिक्षण शिविर का छठा दिन) कोई भी संस्था अथवा कोई भी संगठन होता है तो उसका प्राण उसका अनुशासन है। अनुशासन का अर्थ है शिक्षक की आज्ञाओं का हूबहू पालन करना। किंतु सैन्य अनुशासन और हमारे अनुशासन में फर्क है। सैनिक अनुशासन में पहले आज्ञा मानना आवश्यक है, फिर कोई प्रश्न हो तो कर सकते हैं। लेकिन हमारे अनुशासन में पहले अच्छी तरह समझना है फिर उसका पालन करना है। इसीलिए प्रवचन आदि द्वारा प्रत्येक बात को समझाया जाता है। किसी भी संस्था की आयु इस बात पर निर्भर करती हैं कि उसमें पीछे चलने वाले अनुशासन कितना मानते हैं। एक परिवार का अनुशासन सामान्यतः पिता की आज्ञा पर चलता है। किसी आश्रम का अनुशासन उसके गुरु की इच्छा का पालन होने पर चलता है, यह वास्तविक अनुशासन है, यह यदि हमारे जीवन में आ जाए तो इसी में हमारे परिवार, समाज और राष्ट्र का कल्याण है। उपरोक्त बात माननीय संरक्षक श्री भगवान सिंह रोलसाहबसर ने आलोक आश्रम बाड़मेर में आयोजित हो रहे 11 दिवसीय उच्च प्रशिक्षण शिविर के छठे दिन 24 मई को अपने प्रभात संदेश में कही। माननीय महावीर सिंह जी सरवड़ी ने ’शिक्षक की समस्याएं’ पुस्तक पर चर्चा करते हुए शिक्षक का दायित्व निभाते हुए पूर्व धारणाओं से मुक्त रहने की बात कही। अर्थबोध में पूज्य तनसिंह जी रचित ’हृदय की आग धधकाकर’ सहगीत का सरलार्थ किया गया। बौद्धिक प्रवचन में अनुशासन के वास्तविक स्वरूप और संगठन में उसके महत्व को समझाया गया। #ShriKYS
 
                     
                                                 
                                                 
                                                 
                                                 
                                                
